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Reading: पहचान पर दोहरे मापदंड क्यों
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Indi Reporter || India & Beyond: Stories Shaping Our World Sites > Indi Reporter (Hindi) > Blog > संपादकीय > पहचान पर दोहरे मापदंड क्यों
संपादकीय

पहचान पर दोहरे मापदंड क्यों

Rajesh Kumawat
Last updated: July 21, 2024 5:37 am
Rajesh Kumawat Published July 21, 2024
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लेखक सुरेंद्र चतुर्वेदी indireporter.com

दोहरे मापदंड़ों के सवाल पर रहस्यमयी खामोशी

बात पहचान की है, या पहचान छिपाने की है? यह कैसा तर्क है कि जब विद्यालय में स्कूल ड्रेस की बात आए तो यह कहा जाता है कि हमसे हमारी पहचान छीनने की कोशिश है, लेकिन यदि दुकानों पर मालिक का नाम लिखने की बात आए तो कहा जा रहा है कि हमारे आर्थिक बहिष्कार की तैयारी है? क्या इन दोहरे मापदंड़ों पर बात सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिऐ कि देश के एक समुदाय के व्यवहार पर उंगली उठती है?

क्या यह बात बड़ी अजीब सी नहीं लगती कि मुस्लिम समाज के लोगों को इस्लामी शरिया के अनुसार ही खाद्य सामग्री या अन्य उत्पाद मिलें इसके लिए उनको हर वस्तु पर हलाल सर्टिफिकेशन की मोहर चाहिए लेकिन जब हिन्दू अपनी आस्था के चलते स्थान और पवित्रता की मांग करते हैं तो उनसे कहा जाता है कि वे धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता को बढ़ावा दे रहे हैं?

प्रश्न यह है कि जिस पंथ का उदय ही इस्लाम पर इमान लाने पर हुआ है, उस पंथ के अनुयायी अपने पंथ की पहचान को क्यों छुपाना चाहते हैं? आखिर यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जो एक दो व्यक्तियों को नहीं, बल्कि अधिसंख्य समाज को और उनके आचरण को छल – छद्म करते देख आंखें मूंद लेती है, और जब कोई इस आचरण के खिलाफ आवाज उठाए तो उसे साम्प्रदायिक साबित करने के लिए पूरी ताकत लगा देती है।

रोचक तथ्य यह है कि जिस कानून के आधार पर उत्तरप्रदेश में दुकानदारों को अपना नाम और सरकार से प्राप्त अनुमति पत्र सार्वजनिक करने के लिए कहा गया है वो 2006 में बनाया गया था, उस समय उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और उसके मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे जिनके समर्थन से केन्द्र में यूपीए की सरकार चल रही थी और देश के प्रधानमंत्री थे सरदार मनमोहन सिंह ! 2011 में जब इस कानून के नियम बनाए गये थे तब भी यूपीए की ही सरकार थी और प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह ही थे। तो प्रश्न यह उठता है कि तब मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों, उलेमाओं, मौलवियों और मौलानाओं ने इस कानून का विरोध क्यों नहीं किया ? यानि जो कानून गैर भाजपाई दल बनाएं वो तो अच्छे लेकिन भाजपा सरकारें उन ही कानूनों का सख्ती से पालन कराएं तो वो मुस्लिम विरोधी ?

यदि मुस्लिम समर्थन और विरोध के प्रश्न को पीछे भी छोड़ दिया जाए तो भी इस समुदाय के नागरिकों द्वारा जिस प्रकार की घटनाएं समाज में हो रही हैं और उन घटनाओं पर सामाजिक प्रतिक्रिया तो दूर एक असाधारण चुप्पी को क्या अनदेखा किया जा सकता है? क्या उत्तराखंड में सरकारी जमीनों और जंगल पर कब्जों को भूल जाना चाहिए ? क्या अपना नाम बदल कर लड़कियों को लव जेहाद में धकेलते युवाओं की अपराधिक गतिविधियों को भी सामान्य बात मानकर छोड़ा जा सकता है ? क्या बढ़ती मुस्लिम आबादी के दबाव में हो रहे हिन्दुओं के पलायन पर आवाज उठाना भी सांप्रदायिक अस्पृश्यता मानी जानी चाहिए ? और तो और क्या जमियत उलेमाए हिन्द द्वारा आतंकवादियों के पक्ष में आर्थिक और कानूनी सहयोग करने को भी कथित धर्मनिरपेक्षता के लिए मामूली बात समझा जा सकता है?

तो बात धार्मिक आजादी या अस्पृश्यता की नहीं है, बात सिर्फ इतनी सी है कि देश के बहुसंख्यक समाज को अब मुस्लिम समुदाय पर अविश्वास होने लगा है। दशकों तक जिस भाईचारा की दुहाई देकर कांग्रेस ने नकली धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टीकरण की राजनीति की है, वह अब और नहीं चलने वाली। सवाल उठेंगें, पहचान पर भी और आर्थिक व्यवहार पर भी। लोग अब पूछने लगे हैं कि क्या इस देश में बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं को शरिया कानून के हिसाब से अपना जीवन जीना पड़ेगा ? तय मुस्लिम समाज को करना है कि वो हिन्दू समाज की शंकाओं का निवारण करेगा या विक्टिम कार्ड की दुहाई देकर अपने लिए सुरक्षित रास्ता तलाशता रहेगा।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी, जयपुर
सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट
21 जुलाई 2024

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